भारतीय अर्थव्यवस्था
भारत जीडीपी के संदर्भ में विश्व की नवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है । यह अपने भौगोलिक आकार के संदर्भ में विश्व में सातवां सबसे बड़ा देश है और जनसंख्या की दृष्टि से दूसरा सबसे बड़ा देश है । हाल के वर्षों में भारत गरीबी और बेरोजगारी से संबंधित मुद्दों के बावजूद विश्व में सबसे तेजी से उभरती हुई अर्थव्यवस्थाओं में से एक के रूप में उभरा है । महत्वपूर्ण समावेशी विकास प्राप्त करने की दृष्टि से भारत सरकार द्वारा कई गरीबी उन्मूलन और रोजगार उत्पन्न करने वाले कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं ।
इतिहास
ऐतिहासिक रूप से भारत विदेशी मुद्रा बाजार की विशेषताएँ एक बहुत विकसित आर्थिक व्यवस्था थी जिसके विश्व के अन्य भागों के साथ मजबूत व्यापारिक संबंध थे । औपनिवेशिक युग ( 1773-1947 ) के दौरान ब्रिटिश भारत से सस्ती दरों पर कच्ची सामग्री खरीदा करते थे और तैयार माल भारतीय बाजारों में सामान्य मूल्य से कहीं अधिक उच्चतर कीमत पर बेचा जाता था जिसके परिणामस्वरूप स्रोतों का द्धिमार्गी ह्रास होता था । इस अवधि के दौरान विश्व की आय में भारत का हिस्सा 1700 ए डी के 22.3 प्रतिशत से गिरकर 1952 में 3.8 प्रतिशत रह गया । 1947 में भारत के स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात अर्थव्यवस्था की पुननिर्माण प्रक्रिया प्रारंभ हुई । इस उद्देश्य से विभिन्न नीतियॉं और योजनाऍं बनाई गयीं और पंचवर्षीय योजनाओं के माध्यम से कार्यान्वित की गयी ।
1991 में भारत सरकार ने महत्वपूर्ण आर्थिक सुधार प्रस्तुत किए जो इस दृष्टि से वृहद प्रयास थे जिनमें विदेश व्यापार उदारीकरण, वित्तीय उदारीकरण, कर सुधार और विदेशी निवेश के प्रति आग्रह शामिल था । इन उपायों ने भारतीय अर्थव्यवस्था को गति देने में मदद की तब से भारतीय अर्थव्यवस्था बहुत आगे निकल आई है । सकल स्वदेशी उत्पाद की औसत वृद्धि दर (फैक्टर लागत पर) जो 1951 - 91 के दौरान 4.34 प्रतिशत थी, 1991-2011 के दौरान 6.24 प्रतिशत के रूप में बढ़ गयी ।
कृषि
कृषि भारतीय अर्थव्यवस्था की रीढ़ है जो न केवल इसलिए कि इससे देश की अधिकांश जनसंख्या को खाद्य की आपूर्ति होती है बल्कि इसलिए भी भारत की आधी से भी अधिक आबादी प्रत्यक्ष रूप से जीविका के लिए कृषि पर निर्भर है ।
विभिन्न नीतिगत उपायों के द्वारा कृषि उत्पादन और उत्पादकता में वृद्धि हुई, जिसके फलस्वरूप एक बड़ी सीमा तक खाद्य सुरक्षा प्राप्त हुई । कृषि में वृद्धि ने अन्य क्षेत्रों में भी अधिकतम रूप से अनुकूल प्रभाव डाला जिसके फलस्वरूप सम्पूर्ण अर्थव्यवस्था में और अधिकांश जनसंख्या तक लाभ पहुँचे । वर्ष 2010 - 11 में 241.6 मिलियन टन का एक रिकार्ड खाद्य उत्पादन हुआ, जिसमें सर्वकालीन उच्चतर रूप में गेहूँ, मोटा अनाज और दालों का उत्पादन हुआ । कृषि क्षेत्र भारत के जीडीपी का लगभग 22 प्रतिशत प्रदान करता है ।
उद्योग
औद्योगिक क्षेत्र भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए महत्वपूर्ण है जोकि विभिन्न सामाजिक, आर्थिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए आवश्यक है जैसे कि ऋण के बोझ को कम करना, विदेशी प्रत्यक्ष निवेश आवक (एफडीआई) का संवर्द्धन करना, आत्मनिर्भर वितरण को बढ़ाना, वर्तमान आर्थिक परिदृय को वैविध्यपूर्ण और आधुनिक बनाना, क्षेत्रीय विकास का संर्वद्धन, गरीबी उन्मूलन, लोगों के जीवन स्तर को उठाना आदि हैं ।
स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात भारत सरकार देश में औद्योगिकीकरण के तीव्र संवर्द्धन की दृष्टि से विभिन्न नीतिगत उपाय करती रही है । इस दिशा में प्रमुख कदम के रूप में औद्योगिक नीति संकल्प की उदघोषणा करना है जो 1948 में पारित हुआ और उसके अनुसार 1956 और 1991 में पारित हुआ । 1991 के आर्थिक सुधार आयात प्रतिबंधों को हटाना, पहले सार्वजनिक क्षेत्रों के लिए आरक्षित, निजी क्षेत्रों में भागेदारी, बाजार सुनिश्चित मुद्रा विनिमय दरों की उदारीकृत शर्तें ( एफडीआई की आवक / जावक हेतु आदि के द्वारा महत्वपूर्ण नीतिगत परिवर्तन लाए । इन कदमों ने भारतीय उद्योग को अत्यधिक अपेक्षित तीव्रता प्रदान की ।
आज औद्योगिक क्षेत्र 1991-92 के 22.8 प्रतिशत से बढ़कर कुल जीडीपी का 26 प्रतिशत अंशदान करता है ।
सेवाऍं
आर्थिक उदारीकरण सेवा उद्योग की एक तीव्र बढ़ोतरी के रूप में उभरा है और भारत वर्तमान समय में कृषि आधरित अर्थव्यवस्था से ज्ञान आधारित अर्थव्यवस्था के रूप में परिवर्तन को देख रहा है । आज सेवा क्षेत्र जीडीपी के लगभग 55 प्रतिशत ( 1991-92 के 44 प्रतिशत से बढ़कर ) का अंशदान करता है जो कुल रोजगार का लगभग एक तिहाई है और भारत के कुल निर्यातों का एक तिहाई है
भारतीय आईटी / साफ्टेवयर क्षेत्र ने एक उल्लेखनीय वैश्विक ब्रांड पहचान प्राप्त की है जिसके लिए निम्नतर लागत, कुशल, शिक्षित और धारा प्रवाह अंग्रेजी बोलनी वाली जनशक्ति के एक बड़े पुल की उपलब्धता को श्रेय दिया जाना चाहिए । अन्य संभावना वाली और वर्द्धित सेवाओं में व्यवसाय प्रोसिस आउटसोर्सिंग, पर्यटन, यात्रा और परिवहन, कई व्यावसायिक सेवाऍं, आधारभूत ढॉंचे से संबंधित सेवाऍं और वित्तीय सेवाऍं शामिल हैं।
बाहय क्षेत्र
1991 से पहले भारत सरकार ने विदेश व्यापार और विदेशी निवेशों पर प्रतिबंधों के माध्यम से वैश्विक प्रतियोगिता से अपने उद्योगों को संरक्षण देने की एक नीति अपनाई थी ।
उदारीकरण के प्रारंभ होने से भारत का बाहय क्षेत्र नाटकीय रूप से परिवर्तित हो गया । विदेश व्यापार उदार और टैरिफ एतर बनाया गया । विदेशी प्रत्यक्ष निवेश सहित विदेशी संस्थागत निवेश कई क्षेत्रों में हाथों - हाथ लिए जा रहे हैं । वित्तीय क्षेत्र जैसे बैंकिंग और बीमा का जोरदार उदय हो रहा है । रूपए मूल्य अन्य मुद्राओं के साथ-साथ जुड़कर बाजार की शक्तियों से बड़े रूप में जुड़ रहे हैं ।
आज भारत में 20 बिलियन अमरीकी डालर (2010 - 11) का विदेशी प्रत्यक्ष निवेश हो रहा है । देश की विदेशी मुद्रा आरक्षित (फारेक्स) 28 अक्टूबर, 2011 को 320 बिलियन अ.डालर विदेशी मुद्रा बाजार की विशेषताएँ है । ( 31.5.1991 के 1.2 बिलियन अ.डालर की तुलना में )
भारत माल के सर्वोच्च 20 निर्यातकों में से एक है और 2010 में सर्वोच्च 10 सेवा निर्यातकों में से एक है ।
विदेशी मुद्रा बाजार की विशेषताएँ
चीन राष्ट्रीय विदेशी मुद्रा प्रशासन: चीन के विदेशी मुद्रा बाजार में अच्छा लचीलापन
21 नवम्बर को आयोजित 2022 वित्तीय मंच के वार्षिक सम्मेलन के उद्घाटन समारोह में चीनी जन बैंक के उपाध्यक्ष, चीनी राष्ट्रीय विदेशी मुद्रा प्रशासन के प्रधान फान कोंगशंग ने कहा कि इस वर्ष उच्च मुद्रास्फीति और सिकुड़न मुद्रा नीति के प्रभाव से विदेशी मुद्रा समेत अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय बाजार की डांवाडोल स्थिति को एक साल हो चुका है। इसके बावजूद चीनी विदेशी मुद्रा के बाजार में लचीलापन दिखता है।
फान कोंगशंग ने कहा कि इस वर्ष वैश्विक स्टॉक, बॉन्ड और अन्य वित्तीय संपत्ति की कीमतें बड़े पैमाने पर गिर चुकी हैं। यूएस डॉलर तेजी से मजबूत हो गया है और 20 वर्षों की एक नयी ऊंचाई पर पहुंचा है।
फान कोंगशंग ने कहा कि चीन की विदेशी मुद्रा के बाजार में नयी विशेषताएं दिख रही हैं और लचीलापन निरंतर मजबूत हो रहा है। वैश्विक दायरे में प्रमुख विकसित और नवोदित बाजार में मुद्राओं की तुलना में चीनी मुद्रा आरएमबी की अवमूल्यन दर औसत स्तर पर रही है। सीमा पार फंड के प्रवाह में उतार -चढ़ाव होने के बावजूद यह आम तौर पर स्थिर और व्यवस्थित रहा है।
साथ ही चीनी वित्तीय विभागों ने वित्तीय समर्थन की कई नीतियां जारी कीं, जिन्होंने बंदोबस्त की भूमिका अदा की है और बाजार में सक्रिय प्रभाव पड़ा है। भविष्य में चीनी राष्ट्रीय विदेशी मुद्रा प्रशासन वित्तीय खुलेपन और सुरक्षा का समायोजन कर उच्च स्तरीय खुले विदेशी मुद्रा प्रबंध तंत्र की स्थापना करेगा, विदेशी मुद्रा के सुधार और खुलेपन को गहरा करेगा, सीमा पार व्यापार और निवेश के सुविधाकरण के स्तर को उन्नत करेगा और विदेशी मुद्रा बाजार के स्वस्थ प्रचलन और राष्ट्रीय आर्थिक वित्तीय सुरक्षा की रक्षा करेगा।
भारत में मनी मार्केट इंस्ट्रूमेंट्स के बारे में सब कुछ
मुद्रा बाजार व्यापार में एक अल्पकालिक ऋण निवेश है। इसमें संस्थानों और व्यापारियों के बीच बड़े पैमाने पर व्यापार शामिल है। मुद्रा बाजार के खुदरा स्तर में मुद्रा बाजार खातों और व्यक्तिगत निवेशकों द्वारा खरीदा गया म्युचुअल फंड व्यापार शामिल है। अल्पकालिक परिपक्वता वाले जारीकर्ता के वित्तीय साधनों का उपयोग पूंजी जुटाने के लिए किया जाता है। उन्हें मनी मार्केट इंस्ट्रूमेंट्स कहा जाता है। वे ऋण सुरक्षा के रूप में कार्य करते हैं जो निश्चित ब्याज दरों विदेशी मुद्रा बाजार की विशेषताएँ की पेशकश करता है और असुरक्षित है। मनी मार्केट इंस्ट्रूमेंट्स में एक उच्च क्रेडिट रेटिंग होती है, जो यह सुनिश्चित करती है कि जारीकर्ता अपना पैसा अल्पावधि के लिए पार्क करें और निश्चित रिटर्न अर्जित करें।
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मुद्रा बाजार में कब संतुलन होता है?
इसे सुनेंरोकेंअतः पहले मुद्रा बाज़ार के संतुलन को अलग से समझ लेना आवश्यक है। परंतु मुद्रा बाज़ार के संतुलन से पूर्व इस बाज़ार का अर्थ स्पष्ट करना भी बहुत उपयोगी रहेगा। (संतुलन) ब्याज की दर पर मुद्रा (तरलता) की माँग मुद्रा की पूर्ति के समान होती है।
इसे सुनेंरोकेंअतः मुद्रा की माँग होती है और यदि मुद्रा की आपूर्ति दी गई हो तो मुद्रा बाज़ार में संतुलन भी ज्ञात किया जा सकता है । मुद्रा (सबसे तरल परिसम्पत्ति) का परित्याग करने के लिए जो कीमत मिलती है उसे ही ब्याज का नाम दिया गया है। अतः जब मुद्रा की माँग तथा पूर्ति समान होती है तो ब्याज की संतुलन दर का निर्धारण होता है।
भारतीय मुद्रा बाजार की प्रमुख कमजोरियां क्या है?
इसे सुनेंरोकेंभारतीय मुद्रा बाजार का सबसे महत्वपूर्ण दोष असंगठित क्षेत्र का अस्तित्व है। बाजार के इस क्षेत्र में उद्देश्य के रूप में अच्छी तरह से अवधि स्पष्ट रूप से सीमांकित नहीं हैं। वास्तव में, यह खंड इस विशेषता पर पनपता है। यह खंड मुद्रा बाजार में RBI की भूमिका को कम आंकता है।
विदेशी मुद्रा बाजार के महत्व क्या है?
इसे सुनेंरोकेंऑनलाइन विदेशी मुद्रा व्यापार करने के सबसे बड़े लाभों में से एक बाजार निर्माता के साथ सीधे व्यापार करने की क्षमता है। एक प्रतिष्ठित विदेशी मुद्रा दलाल व्यापारियों को स्ट्रीमिंग, निष्पादन योग्य मूल्य प्रदान करेगा। सांकेतिक कीमतों और निष्पादन योग्य कीमतों के बीच अंतर करना महत्वपूर्ण है।
मुद्रा संतुलन क्या है?
इसे सुनेंरोकेंमुद्रा बाजार का संतुलन कई तरह के मानकों पर निर्भर करता है। यह कोई छोटी जगह नहीं बल्कि वैश्विक स्तर पर चल रहे कार्यों के अनुसार बनता और बिगड़ता है। अपने देश के मुद्रा की बात करें तो यह समय समय पर डॉलर के मुकाबले घटता और बढ़ता रहता है। अंतरराष्ट्रीय कारणों से इसकी स्थिति तय होती है।
मुद्रा बाजार के निवेश में अल्पावधि के निधी को जुटाने के लिए क्या स्थापित किया गया है?
इसे सुनेंरोकेंट्रेजरी बिल (टी-बिल) टी-बिल भारत सरकार द्वारा 365 दिनों के अल्पकालिक के लिए धन जुटाने के लिए जारी किए जाते हैं। ये सबसे सुरक्षित साधन हैं क्योंकि ये सरकार की गारंटी से समर्थित हैं। वापसी की दर, जिसे जोखिम-मुक्त दर के रूप में भी जाना जाता है, अन्य सभी साधनों की तुलना में टी-बिल पर कम है।
मुद्रा बाजार का अर्थ बताइए मुद्रा बाजार में कौन कौन सी विशेषताएं होती है?
इसे सुनेंरोकेंमुद्रा बाजार की विशेषताएं: लेनदेन दलालों की मदद के बिना आयोजित किया जाना है। यह एक एकल सजातीय बाजार नहीं है, इसमें कॉल मनी मार्केट, स्वीकृति और बिल बाजार जैसे कई सबमार्कट शामिल हैं। मुद्रा बाजार के घटक वाणिज्यिक बैंक, स्वीकृति गृह और एनबीएफसी (गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियां) हैं।
मुद्रा बाजार में कौन कौन सी विशेषताएं होती है?
मांग मुद्रा बाजार क्या है?
इसे सुनेंरोकेंमाँग मुद्रा या काल मनी (Call money) ऐसे वित्त को कहते हैं जो लघु-अवधि का होता है और जिसे मांगे जाने पर चुकता करना होता है। इसकी अवधि १ से लेकर १४ दिन तक की होती है। माँग-मुद्रा का उपयोग बैंकों के आपसी लेन-देन में होता है।
विदेशी विनिमय बाजार से आप क्या समझते हैं इसके महत्व और भागीदारों के कार्यों का वर्णन कीजिए?
इसे सुनेंरोकेंविदेशी विनिमय (या फोरेक्स या एफएक्स) बाजार सबसे बड़ा बाजार है, जिसमें विदेशी व्यापारियों के बीच ट्रिलियन डॉलर से अधिक मूल्य का आदान–प्रदान होता है। विदेशी मुद्राओं का व्यापार भारतीय बाजार सहित विभिन्न अंतरराष्ट्रीय स्थानों में किया जाता है, और यह 24 घंटे खुला रहता है।
विदेशी मुद्रा विदेशी मुद्रा बाजार की विशेषताएँ बाजार में भाग लेने वाले कौन हैं समझाइए?
इसे सुनेंरोकेंविदेशी मुद्रा बाजार, विश्व की मुद्राओं के क्रय-विक्रय (व्यापार) का बाजार है जो विकेन्द्रित, चौबीसों घंटे चलने वाला, काउन्टर पर किया जाने वाले (over the counter) कारोबार है। अन्य वित्तीय बाजारों की अपेक्षा यह बहुत नया है और पिछली शताब्दी में सत्तर के दशक में आरम्भ हुआ।
मुद्रा क्या है हिंदी मै?
इसे सुनेंरोकेंमुद्रा (currency, करन्सी) पैसे या धन के उस रूप को कहते हैं जिस से दैनिक जीवन में क्रय और विक्रय होती है। इसमें सिक्के और काग़ज़ के नोट दोनों आते हैं। आमतौर से किसी देश में प्रयोग की जाने वाली मुद्रा उस देश की सरकारी व्यवस्था द्वारा बनाई जाती है। मसलन भारत में रुपया व पैसा मुद्रा है।
मुद्रा बाजार से आप क्या समझते हैं?
इसे सुनेंरोकेंयह वैश्विक वित्तीय प्रणाली के लिए अल्पकालिक अवधि की नकदी/तरलता का वित्त पोषण प्रदान करता है। मुद्रा बाजार वह जगह है जहां अल्पकालिक कार्यकाल दायित्व जैसे ट्रेज़री बिल, वाणिज्यिक पत्र/पेपर और बैंकरों की स्वीकृतियां आदि खरीदे और बेचे जाते हैं।
भारतीय अर्थव्यवस्था
भारत जीडीपी के संदर्भ में विश्व की नवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है । यह अपने भौगोलिक आकार के संदर्भ में विश्व में सातवां सबसे बड़ा देश है और जनसंख्या की दृष्टि से दूसरा सबसे बड़ा देश है । हाल के वर्षों में भारत गरीबी और बेरोजगारी से संबंधित मुद्दों के बावजूद विश्व में सबसे तेजी से उभरती हुई अर्थव्यवस्थाओं में से एक के रूप में उभरा है । महत्वपूर्ण समावेशी विकास प्राप्त करने की दृष्टि से भारत सरकार द्वारा कई गरीबी उन्मूलन और रोजगार उत्पन्न करने वाले कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं ।
इतिहास
ऐतिहासिक रूप से भारत एक बहुत विकसित आर्थिक व्यवस्था थी जिसके विश्व के अन्य भागों के साथ मजबूत व्यापारिक संबंध थे । औपनिवेशिक युग ( 1773-1947 ) के दौरान ब्रिटिश भारत से सस्ती दरों पर कच्ची सामग्री खरीदा करते थे और तैयार माल भारतीय बाजारों में सामान्य मूल्य से कहीं अधिक उच्चतर कीमत पर बेचा जाता था जिसके परिणामस्वरूप स्रोतों का द्धिमार्गी ह्रास होता था । इस अवधि के दौरान विश्व की आय में भारत का हिस्सा 1700 ए डी के 22.3 प्रतिशत से गिरकर 1952 में 3.8 प्रतिशत रह गया । 1947 में भारत के स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात अर्थव्यवस्था की पुननिर्माण प्रक्रिया प्रारंभ हुई । इस उद्देश्य से विभिन्न नीतियॉं और योजनाऍं बनाई गयीं और पंचवर्षीय योजनाओं के माध्यम से कार्यान्वित की गयी ।
1991 में भारत सरकार ने महत्वपूर्ण आर्थिक सुधार प्रस्तुत किए जो इस दृष्टि से वृहद प्रयास थे जिनमें विदेश व्यापार उदारीकरण, वित्तीय उदारीकरण, कर सुधार और विदेशी निवेश के प्रति आग्रह शामिल था । इन उपायों ने भारतीय अर्थव्यवस्था को गति देने में मदद की तब से भारतीय अर्थव्यवस्था बहुत आगे निकल आई है । सकल स्वदेशी उत्पाद की औसत वृद्धि दर (फैक्टर लागत पर) जो 1951 - 91 के दौरान 4.34 प्रतिशत थी, 1991-2011 के दौरान 6.24 प्रतिशत के रूप में बढ़ गयी ।
कृषि
कृषि भारतीय अर्थव्यवस्था की रीढ़ है जो न केवल इसलिए कि इससे देश की अधिकांश जनसंख्या को खाद्य की आपूर्ति होती है बल्कि इसलिए भी भारत की आधी से भी अधिक आबादी प्रत्यक्ष रूप से जीविका के लिए कृषि पर निर्भर है ।
विभिन्न नीतिगत उपायों के द्वारा कृषि उत्पादन और उत्पादकता में वृद्धि हुई, जिसके फलस्वरूप एक बड़ी सीमा तक खाद्य सुरक्षा प्राप्त हुई । कृषि में वृद्धि ने अन्य क्षेत्रों में भी अधिकतम रूप से अनुकूल प्रभाव डाला जिसके फलस्वरूप सम्पूर्ण अर्थव्यवस्था में और अधिकांश जनसंख्या तक लाभ पहुँचे । वर्ष 2010 - 11 में 241.6 मिलियन टन का एक रिकार्ड खाद्य उत्पादन हुआ, जिसमें सर्वकालीन उच्चतर रूप में गेहूँ, मोटा अनाज और दालों का उत्पादन हुआ । कृषि क्षेत्र भारत के जीडीपी का लगभग 22 प्रतिशत प्रदान करता है ।
उद्योग
औद्योगिक क्षेत्र भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए महत्वपूर्ण है जोकि विभिन्न सामाजिक, आर्थिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए आवश्यक है जैसे कि ऋण के बोझ को कम करना, विदेशी प्रत्यक्ष निवेश आवक (एफडीआई) का संवर्द्धन करना, आत्मनिर्भर वितरण को बढ़ाना, वर्तमान आर्थिक परिदृय को वैविध्यपूर्ण और आधुनिक बनाना, क्षेत्रीय विकास का संर्वद्धन, गरीबी उन्मूलन, लोगों के जीवन स्तर को उठाना आदि हैं ।
स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात भारत सरकार देश में औद्योगिकीकरण के तीव्र संवर्द्धन की दृष्टि से विभिन्न नीतिगत उपाय करती रही है । इस दिशा में प्रमुख कदम के रूप में औद्योगिक नीति संकल्प की उदघोषणा करना है जो 1948 में पारित हुआ और उसके अनुसार 1956 और 1991 में पारित हुआ । 1991 के आर्थिक सुधार आयात प्रतिबंधों को हटाना, पहले सार्वजनिक क्षेत्रों के लिए आरक्षित, निजी क्षेत्रों में भागेदारी, बाजार सुनिश्चित मुद्रा विनिमय दरों की उदारीकृत शर्तें ( एफडीआई की आवक / जावक हेतु आदि के द्वारा महत्वपूर्ण नीतिगत परिवर्तन लाए । इन कदमों ने भारतीय उद्योग को अत्यधिक अपेक्षित तीव्रता प्रदान की ।
आज औद्योगिक क्षेत्र 1991-92 के 22.8 प्रतिशत से बढ़कर कुल जीडीपी का 26 प्रतिशत अंशदान करता है ।
सेवाऍं
आर्थिक उदारीकरण सेवा उद्योग की एक तीव्र बढ़ोतरी के रूप में उभरा है और भारत वर्तमान समय में कृषि आधरित अर्थव्यवस्था से ज्ञान आधारित अर्थव्यवस्था के रूप में परिवर्तन को देख रहा है । आज सेवा क्षेत्र जीडीपी के लगभग 55 प्रतिशत ( 1991-92 के 44 प्रतिशत से बढ़कर ) का अंशदान करता है जो कुल रोजगार का लगभग एक तिहाई है और भारत के कुल निर्यातों का एक तिहाई है
भारतीय आईटी / साफ्टेवयर क्षेत्र ने एक उल्लेखनीय वैश्विक ब्रांड पहचान प्राप्त की है जिसके लिए निम्नतर लागत, कुशल, शिक्षित और धारा प्रवाह अंग्रेजी बोलनी वाली जनशक्ति के एक बड़े पुल की उपलब्धता को श्रेय दिया जाना चाहिए । अन्य संभावना वाली और वर्द्धित सेवाओं में व्यवसाय प्रोसिस आउटसोर्सिंग, पर्यटन, यात्रा और परिवहन, कई व्यावसायिक सेवाऍं, आधारभूत ढॉंचे से संबंधित सेवाऍं और वित्तीय सेवाऍं शामिल हैं।
बाहय क्षेत्र
1991 से पहले भारत सरकार ने विदेश व्यापार और विदेशी निवेशों पर प्रतिबंधों के माध्यम से वैश्विक प्रतियोगिता से अपने उद्योगों को संरक्षण देने की एक नीति अपनाई थी ।
उदारीकरण के प्रारंभ होने से भारत का बाहय क्षेत्र नाटकीय रूप से परिवर्तित हो गया । विदेश व्यापार उदार और टैरिफ एतर बनाया गया । विदेशी प्रत्यक्ष निवेश सहित विदेशी संस्थागत निवेश कई क्षेत्रों में हाथों - हाथ लिए जा रहे हैं । वित्तीय क्षेत्र जैसे बैंकिंग और बीमा का जोरदार उदय हो रहा है । रूपए मूल्य अन्य मुद्राओं के साथ-साथ जुड़कर बाजार की शक्तियों से बड़े रूप में जुड़ रहे हैं ।
आज भारत में 20 बिलियन अमरीकी डालर (2010 - 11) का विदेशी प्रत्यक्ष निवेश हो रहा है । देश की विदेशी मुद्रा आरक्षित (फारेक्स) 28 अक्टूबर, 2011 को 320 बिलियन अ.डालर है । ( 31.5.1991 के 1.2 बिलियन अ.डालर की तुलना में )
भारत माल के सर्वोच्च 20 निर्यातकों में से एक है और 2010 में सर्वोच्च 10 सेवा निर्यातकों में से एक है ।
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